रिश्ता

 उफ़्फ़, ये दर्द और रात का रिश्ता

समझ ना आता मुझे यह रिश्ता ।


साँझ ढले हौले - हौले है बढ़ता 

और धीरे - धीरे परवान वो चढ़ता 


क्यों है इन दोनों में गहरा नाता

जो मुझे समझ ना आता 


रैन होती जब शबाब पर 

तब ही दर्द होता  उफान पर


क्यों , इन दोनों को मिलना 

सदा तन्हाई में


पीड़ा देता है 

दोनों का तन्हाई में मिलना


किन्तु  इनको तो आनंद आता 

तन्हाई में हौले - हौले मिलना


क्या है इन दोनों में रिश्ता

 जो समझ ना आता।


उफ्फ, ये दर्द और रात का रिश्ता ।




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