तपती धरा
बादल आए बादल आए
काले - काले बादल आए
तपती धरती की प्यास बुझाने
जल से भरे बादल आए
देख अम्बर में जलधर को
गाछ , धरा , सरिता पुलकित
पशु - पक्षी संग हलधर हर्षित
वृक्ष झूम - झूम कर
मेघों का कर रहे हैं स्वागत
बैलों संग कृषक भी झूम रहे
किन्तु यह क्या !
घन को चीर निकला सूरज
लगता रूठ गए फिर से पयोधर
जाते देख अम्बुद को
हुए पशु - पक्षी व्याकुल
नर - नारी भी आकुल
खिन्न मन से सब मानुष
शिकवा कर रहे धरा से
क्यों बारम्बार बदल रहा मौसम ?
तब क्रोधित हो धरती गरजी
आक्रोशित स्वर में वह बोली
नहीं आएँगे अब काले घन
मैंने अपनी संतान दे
दिया तुम्हें कोष अमूल्य
पर तुम तो निकले अज्ञानी
पर्वत , वृक्ष , नदी सब मेरे बालक
दोहन कर इनका अपार
अंक सूना कर दिया मेरा
किन्तु कर रही हूँ विनती मैं
गोद पुनः भर दो मेरी
देखोगे फिर वैसी हरियाली
समय बहुत नहीं है बीता
वृक्ष लगा मुझे बचा लो
ऋतुएँ होगी तब अनुकूल
बात मेरी गाँठ बाँध लो
कुदरत से खिलवाड़ त्याग दो
👌
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