नन्हीं चिड़िया
लगता, फिर आई वह नन्हीं चिड़िया
चीं चीं चीं कर शोर मचाती;
मैं झल्लाई,
दाना - पानी सब तो रखा था
फिर क्यों चीं चीं कर बुला रही ?
जाकर देखा तो चिड़िया नहीं,
(बल्कि, )चिड़ियों का पूरा कुनबा,था
जिनके लिए वह ( दाना पानी)कम था।
और दिया जब दाना-पानी,
चुगने लगीं सब चिड़िया रानी।
अब तो नित्य नियत समय पर आना उनका तय था
मन मेरा भी भाव-विभोर था ।
आज बुलाने सब शयन कक्ष तक आईं थीं
जो भूल गई थी उनका खाना रखना ।
दौड़ी जब वह सब रखने
तब गए पैर लड़खड़ा मेरे।
ओह !
तो यह था केवल सुन्दर सपना !
अब तो कहीं नहीं वे नन्हीं चिड़ियाँ,
ना ही उनकी चीं चीं चीं।
उदास असहाय सी बैठी मैं
खोज रहीं थीं आँखें मेरी
चिड़ियों के उस कुनबे को ।
तभी दूर गगन से
आई आवाज़ -
तुम सब हो अपराधी मेरे
तुम सबने उजाड़े घरौंदे मेरे
मिटाया अस्तित्व को मेरे
फिर खोज रहीं क्यों मुझे ये आँखें ?
सुनकर यह एक टीस उठी;
रुंधे स्वरों में मैं बोली-
तुम बिन यह आकाश सूना,
धरती भी सूनी,
और यह भी सच,
हैं हम सब अपराधी।
पर अब ना घरौदें उजड़ने दूँगी,
वृक्ष लगा कर फिर बसवा दूंगी,
लाकर तुमको अपनी दुनिया में,
अपराध बोध मिटा लूँगी॥
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👌👌
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