अम्मा
आज मंदिर के बाहर एक दुकान में तुतुई (जैसा जलनेति करने का लोटा होता है ठीक वैसा ही लेकिन मिट्टी का और आकार में बहुत सा) दिख गई।सच तो यह है कि मुझे उसका नाम नहीं मालूम।बचपन से तुतुई कहा तो वही लिख रही हूँ। सालों बाद तुतई देख मैं उसको ख़रीदने के लिए मचल उठी और झट से उसको ख़रीदने के लिए कार से उतर गई ।उसको ख़रीदने के उपरांत बचपन की यादों में खो गई।तुतई हो और अम्मा का ज़िक्र ना हो ऐसा हो ही नहीं सकता।
आज अम्मा हमारे बीच नहीं हैं।28 मई को अम्मा ने देह त्याग दिया।कभी-कभी दिल के रिश्ते खून के रिश्ते बढ़कर होते हैं।मेरे संबंध में यह कुछ ज़्यादा ही सटीक बैठता है।अम्मा और अम्मा के परिवार से कुछ ऐसा ही संबंध है।आज अम्मा इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनसे जुड़ी अनगिनत यादें हैं।
अम्मा के संपर्क में कब आई याद ही नहीं।दोनों घरों के आँगन के मध्य दीवार थी।अम्मा के बच्चों के विवाह या अन्य किसी प्रयोजन के लिए वो दीवार तोड़ दी जाती थी।उस दीवार में एक झरोखा भी बनाया गया था।जिससे सामान का आदान-प्रदान,बच्चों का आवागमन, मम्मी का अम्मा व अम्मा के बेटा-बहू व बेटी (बच्चा भइया-विमला भाभी, सोहन भइया-निर्मला भाभी, राकेश भइया-राधा भाभी व गीता दीदी और रेखा बुआ)से घंटों बातें होती थीं।कभी लगा ही नहीं कि हम दो परिवार हैं।
अम्मा-बाबू जब तक शारीरिक रुप से सक्षम रहे नित्य गंगा स्नान करने रसूलाबाद जाते थे।बाबू साइकिल से और अम्मा अपनी सखियों के साथ पैदल।मैं और भइया छोटे थे और तब तक अम्मा के पोता-पोती तो नहीं थे लेकिन नाती-नातिन थे।अम्मा को मुझसे कम और भइया से विशेष लगाव था।भइया को वो राघुल (भइया के तीन नाम हैं - कुक्कू,राहुल और स्कंद) और मुझे डोली बुलाती थीं।भइया के जन्मदिन पर सबसे छुपकर उसे पैसे देंती थीं।भइया के विशेष स्नेह से मुझे कभी कोई कष्ट नहीं हुआ क्योंकि मैं अम्मा के परिवार के बाक़ी सदस्यों की अति प्रिय थी।थी, कहना पूर्णतया ग़लत होगा आज भी सबकी प्रिय हूँ।
अम्मा तेज तर्रार और खाने की अति शौक़ीन महिला थीं।कब कौन उनके कोप-भाजन का शिकार हो जाए कुछ नहीं कहा जा सकता था।मैं भी उनके कोप भाजन का शिकार हुई हूँ।एक बार मैंने उनसे कौतूहलवश पूछ लिया, “अम्मा आप कितना पढ़ी हैं?” भरपूर ग़ुस्से में बोलीं, “ जेतना तोर बाप पढ़ा है।” उन्होंने तो ग़ुस्से में जवाब दिया था लेकिन मैंने उनकी इस बात को सत्य मान लिया।मैने खुश होकर पापा को बताया कि अम्मा तो M.A की हैं तब पापा ने बताया कि वो पढ़ी नहीं हैं।काली मिर्च को गोल मिर्च भी कहते हैं उनसे डाँट खाने के बाद ही जानी थी।हुआ यूँ था कि एक रात उन्होंने मुझे प्रेम भरी आवाज़ में पुकारा, “डोली,डोली” मैं दौड़ते हुए झरोखे के पास पहुँची और बोली, हाँ अम्मा तो उन्होंने पूछा, “गोल मिर्च है?” मैंने भोलेपन से जवाब दिया, “अम्मा गोल नहीं लम्बी मिर्च है दें?” अब तो उनका ग़ुस्सा साँतवे आसमान पर पहुँच गया और लगीं मुझे गरियाने।उनकी इस हरकत से अचंभित किआखिर मैंने किया क्या? जब मैंने यह बात मम्मी को बताई तो वो बोलीं “अम्मा काली मिर्च माँग रहीं थीं।” उस दिन से आज तक ना भूल पाई कि काली मिर्च को गोल मिर्च भी कहते हैं।
अब तुतुई से जुड़ी यादें।अम्मा हर गर्मी रसूलाबाद से मेरे और भइया के लिए तुतुई लाती थीं।जिसमें हम दोनों पानी भर देते थे और वही पानी पीते थे।उससे खूब सोंधी-सोंधी ख़ुश्बू आती थी और पानी तो इतना ठंडा कि फ्रिज फेल।उस समय विमला भाभी नई-नई ब्याहकर आईं थीं।ब्याह के सामान में लोहे की अलमीरा मिली थी।उस अलमीरा में कपड़ों के स्थान पर अम्मा अचार,सिरका रखती थीं और गर्मीं में हम दोनों भाई-बहन उस अलमीरा को फ्रिज समझकर पूरे अधिकार से तुतुई में पानी भरकर रखते थे।इस हरकत पर कभी किसी ने नाराज़गी ना जताई।
जीवन है तो मृत्यु भी सुनिश्चित है लेकिन असमय जब कोई छोड़ कर जाता है तो उसको स्वीकारना कठिन होता है।आज विमला भाभी और सोहन भइया हमारे बीच नहीं हैं लेकिन विमला भाभी की अलमीरा अभी भी सही सलामत हैं और अब उसमें कपड़े रखे जाते हैं।
अब ना लोगों से वैसे संबंध बनते हैं और ना वैसा सामान।सामान के साथ-साथ रिश्तों में भी मिलावट हो गई है।
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