बिछोह

 मुझे तड़पाना छोड़ दो

यूँ सपनों में आना छोड़ दो


ज्ञात होता नियति में है बिछड़ना

तो क्यों ही करती प्रीति


अंतिम क्षण तक चाहा था 

संग तुम्हारा


पर हाय रे ! नियति

उसको यह मंज़ूर ना था


बिछोह का कष्ट तुम क्या जानो

स्वभाव से हो तुम छलिया


मैं नहीं कोई और सही

तुम्हारी प्रवृत्ति यही है 


चलो यह भी सच स्वीकार किया

गिला क्या ही करूँ


जब नियति में ही था बिछड़ना

बस विनती इतनी है


सपनों में आना छोड़ दो

मुझे यूँ तड़पाना छोड़ दो ।






Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

बात ही बात

कर्मकांड

बिटिया रानी