मुस्कराइए आप लखनऊ में हैं
लखनऊ का नाम सुनकर मुस्कराहट आ ही जाती है।लेकिन आज मन भारी है पहला त्यौहार है जानकी के बिना।13 1/2 साल रही हूँ लखनऊ में।बहुत यादें हैं।दिल कह रहा है वो यादें आप सब के साथ बाँट लूँ।
नवम्बर 2007 में दिल्ली से लखनऊ आई थी।आद्या सवा दो साल की थी ।बातूनी भी थी और अपनी चंचलता से लोगों का मन भी मोह लेती थी।उसी ने घर के ठीक सामने बिष्ट अंकल से दोस्ती की थी।दिसम्बर में किडनी इंफेक्शन के कारण आद्या को admit करना पड़ा वो ठीक भी नहीं हो पाई कि मुझे स्पाइंडलो आर्थराइटिस हो गया उस समय लगा इससे अच्छे तो दिल्ली में ही थे।
धीरे-धीरे लोगों से मेरा भी परिचय बढ़ने लगा।बिष्ट अंकल और शर्मा आंटी से ज्यादा ही लगाव हो रहा था।फिर परिचय हुआ जानकी से(बिष्ट अंकल की बड़ी बहू)फिर उसके पूरे परिवार से।अब तो कोई कह ही नहीं सकता कि हम दो परिवार हैं।एक ने तो पूछ लिया था मुझसे आप इनकी रिश्तेदार हैं क्या ?
जानकी,उसके पति आनंद (जिनको मैं हमजोली बोलती हूँ)और मैं हम लोगों की तिकड़ी बन गई,जो अभी तक बरकरार है।हमारे बच्चों की भी तिकड़ी बन गई।बच्चों में कभी कभार झगड़ा हो जाया करता था लेकिन थोड़ी देर में सब ठीक।
जानकी के परिवार और शर्मा आंटी ने जितना मेरे लिए किया है उसका कर्ज रहेगा हमेशा।मेरे हर कष्ट में जानकी लोग हमेशा साथ रहे हैं।मैं यूटरस इलाज के लिए देर रात तक हॉस्पिटल में रहती थी तब आद्या 4-5साल की थी और जानकी ही उसे देखती थी देर रात तक दोनों बालकनी में खड़े रहते थे।मेरे एक ऑपरेशन में तो मेरे हमजोली(आनंद)और मेरी पड़ोसन ही थीं।उसी दौरान मेरे पतिदेव को डेंगी हो गया उन्हें भर्ती करना उस समय बिष्ट अंकल का सुबह-सुबह 13 किलोमीटर टिफिन ले जाना।उस समय शर्मा आंटी की देखभाल और बिष्ट अंकल की मदद भूलना असंभव है।2013 में पतिदेव और आद्या के एक्सीडेंट के दौरान अंकल का तुरंत हॉस्पिटल आ जाना हिम्मत दे गया था।2014 मेरी आवाज चली गई थी और महीनों मैं बिस्तर से नहीं उठ पाई थी।जानकी आज भी कहती है कि उस समय उसे लगता था कि अब मैं नहीं बचूँगी और उसकी मदद आज बहुत याद आ रही।इन सब तकलीफों के बीच हम सब ने मस्ती भी खूब की है।
उन मस्ती के बारे फिर कभी।जानकी की दोनों ननदों और देवर से जितना प्रेम और सम्मान मिला है उसको शब्दों में कहना असंभव है।
और अब शर्मा आंटी जो अब हमारे बीच नहीं हैं।रिश्ता देखा जाए तो वो सास के पद पर थीं लेकिन हमारी और जानकी की दोस्त।खूब छेड़ती थी मैं तो उन समय वो केवल हँसती थीं और बोलती थीं सब मेरे बच्चे हैं।मेरे बिमार पड़ने पर प्यार भरी डाँट कि “और घूमो बाल खोकर बाल में गाँठ लगाया करो" फिर मिर्ची राई लेकर मेरी नजर उतारना बहुत याद आ रहा।उन्होंने अनगिनत बार अपने हाथ से खाना खिलाया है।आंटी का अचानक जाना मुझे और जानकी को आज भी खलता है।
बस अंत में यही लिखूँगी कि जितना धन्यवाद बोलूँ इन दो परिवारों के लिए कम है।
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