अपना घर
सुबह की पूजा-पाठ से मैं थक गई थी इसलिए सोचा क्यों न बालकनी में आरामकुर्सी पर बैठकर आराम कर लूँ।आज बहुत सालों बाद मैं बहुत खुश थी,खुश हूँ भी क्यूँ न आखिर आज मेरी बेटी आद्या के घर में गृहप्रवेश का आयोजन है।मेरी बेटी का 'घर' जहाँ से उसे कोई नहीं निकाल सकता।
दो अक्षर का शब्द 'घर' छोटा सा शब्द है पर जीवन में इसका बहुत बड़ा अर्थ है, इसको मुझसे अच्छा कौन समझ सकता है?
इस 'घर' ने ही मेरी जिन्दगी बदल कर रख दी
20 फरवरी 1975 मेरे पति एक सड़क दुर्घटना में घायल हो गए थे उन्हें स्पाइन में चोट आई थी जिसके कारण वे उठने-बैठने में असमर्थ हो गए, लेकिन इस दुख की घड़ी में मुझे मेरे दोनों घरवालों का सहारा मिला।वे हमेशा कहते थे,"घबराना मत,जया हम सब तुम्हारे साथ हैं तुम्हें आधी रात को भी किसी चीज की जरूरत हो तो निःसंकोच बताना आखिर हम सब ही तो तुम्हारे हैं"।
पति की प्राइवेट नौकरी थी, कंपनी से थोड़े बहुत पैसे मिले जो इलाज के वक्त ही खत्म हो गए थे।अब आय का कोई स्रोत न था तब मैंने एक दिन सास से कहा मम्मी मैं स्कूल में पढ़ाने का काम कर लूँ, आप पति और बच्चों को सँभाल लेंगी ? तब सास के साथ जेठानी ने भी हामी भरी थी और कहा था कि क्यूँ नहीं, हम नहीं तो और कौन सँभालेगा।मैं निश्चिंत होकर स्कूल जाने लगी।स्कूल जाने से पहले मैं अपने पति को नित्य कर्म कराती थी, दोनों बेटियों को तैयार करती थी व खाना बनाकर जाती थी।मेरे बच्चे मुझसे पहले स्कूल से आ जाते थे, शुरू-शुरू में तो सब ठीक था बच्चों को समय खाना मिलता था पति को भी समय पर खाना व दवाई दी जाती थी।धीरे-धीरे सब बदलने लगा अब न बच्चों को समय पर खाना मिलता था न पति को दवाई।कुछ कहूँ तो सास कहती थीं अपने घर चली जाओ वहाँ आराम से रहोगी।प्राइवेट नौकरी होने की वजह से तनख्वाह कम थी वक्त जरूरत मैं सास से पैसे माँग लिया करती थी पर अब वो आना कानी करने लगी थीं।एक बार रात में मेरी छोटी बेटी काव्या की तबियत ज्यादा खराब हो गई।मैंने सास से कहा कुछ पैसे दे दीजिए डॉक्टर को दिखाना है तो उन्होंने कहा मेरे पास नहीं है अपने घर चली जाओ वहीं दिखा लेना।तब पहली बार मैंने कहा ये भी तो मेरा 'घर' है तो सास ने कहा ये तुम्हारा ससुराल है 'घर' नहीं।
मैं तो आसमान से जमीन पर गिर पड़ी जिस 'घर' को मैं दस साल से अपना 'घर' समझ रही थी वो मेरा घर नहीं ससुराल है।बस मैं तुरन्त अपने पति व अपनी बेटियों के साथ अपने 'घर' आ गई।यहाँ सब ने दिल खोलकर स्वागत किया।भाई-भाभीयों ने कहा, कोई बात नहीं दीदी ये तुम्हारा ही घर है तुम यहीं रहो।मम्मी-पापा ने भी उनकी बात का समर्थन किया।यहाँ मेरी नमौजूदगी में मेरे पति व मेरे बच्चों का खूब ख्याल रखा जा रहा था।मैं भी खुश थी।
लेकिन अभी और मुसीबत झेलनी बाकी थी।एक दिन मैं स्कूल से लौट रही थी कि बगल वाली शर्मा आंटी ने पूछा,"जया कब तक मायके में रहने का विचार है, अपने घर कब जाओगी”? यह दूसरा वज्रपात था कि यह मेरा घर शादी से पहले था अब मायका है।
उसी समय मैंने निर्णय ले लिया कि अब यहाँ नहीं रहूँगी,इससे पहले कि कोई और अपमान करे मैं चली जाऊँगी। मैंने अपने निर्णय से अपने भाइयों को अवगत कराया कि मैं किराए पर कमरा लेकर रहूँगी।भाभी व भाइयों ने बहुत समझाया कि अकेले नहीं रह पायोगी लेकिन मैं अपने फैसले पर अडिग रही।
मैंने एक कमरे का मकान किराए पर ले लिया और बच्चो व पति के साथ वहीं रहने लगी।इस कष्ट की घड़ी में मेरे ‘स्त्री धन' ने मेरा साथ दिया।कुछ महीनों बाद मैं सरकारी स्कूल में पढ़ाने लगी और घर पर बच्चों कोट्यूशन भी देने लगी।मेरी दोनों बेटियाँ पढ़ने में बहुत तेज थीं उन्हें छात्रवृत्ति मिलती थी,अब तो आद्या भी ट्यूशन देने लगी थी।स्थिति पहले से बहुत बेहतर हो गई थी।अब तो मैंने दो कमरों का छोटा सा 'घर'ले लिया था।यह मेरा 'घर' था।यह न ससुराल था न मायका और यहाँ से मुझे कोई नहीं निकाल सकता था।
मैंने अपनी दोनों बेटियों को सिखाया था कि जब तुम लोग अपने पैर पर खड़े होना तब अपना 'घर' जरूर बनाना,जहाँ से तुम्हें कोई न निकाल सके।
आज आद्या लखनऊ की जानी मानी हार्ट स्पेशलिस्ट हैऔर काव्या मेडिकल की पढ़ाई कर रही है।आद्या के ही घर का गृहप्रवेश है। तभी आद्या ने तेज से झकझोरा,सो गई क्या मम्मी?नीचे सब बुला रहे है।मैं जैसे नींद से जागी,आद्या ने कहा थक गई हो तो रहने दो। मैंने कहा तन थका है मन नहीं,चलो नीचे चलते हैं।
नीचे पहुँची तो तालियों की गड़गड़ाहट से मेरा स्वागत हुआ।आद्या ने सबसे मेरा परिचय कराया।सबने कहा मैम आज इस मौके पर कुछ तो कहिए।मैं भी बोलने को आतुर थी,मैंने कहा-"कहने को तो हम महिलाओं के दो घर होते हैं-एक ससुराल दूसरा मायका।लेकिन वो घर नहीं होता ससुराल वाले मायके को हमारा घर कहते हैं और मायके वाले ससुराल को।हम महिलाओं का अपना घर होना चाहिए जिसे न मायका बोले न ससुराल और जहाँ से हमें कोई न निकाल सके।"बस मुझे इतना ही कहना है।
तभी काव्या आई और बोली मम्मी चलो खाना खा लो।मैं खाना खाने जा रही थी कि तो महिलाएँ आपस में बात कर रहीं थी कि,'मालूम है राधा अपने पति की मृत्यु के बाद से अपने बेटे के साथ मायके में ही रहती है और बीच-बीच में ससुराल आती जाती रहती है'।फिर वही ससुराल और मायका।'घर कहाँ है?'
दो अक्षर का शब्द 'घर' छोटा सा शब्द है पर जीवन में इसका बहुत बड़ा अर्थ है, इसको मुझसे अच्छा कौन समझ सकता है?
इस 'घर' ने ही मेरी जिन्दगी बदल कर रख दी
20 फरवरी 1975 मेरे पति एक सड़क दुर्घटना में घायल हो गए थे उन्हें स्पाइन में चोट आई थी जिसके कारण वे उठने-बैठने में असमर्थ हो गए, लेकिन इस दुख की घड़ी में मुझे मेरे दोनों घरवालों का सहारा मिला।वे हमेशा कहते थे,"घबराना मत,जया हम सब तुम्हारे साथ हैं तुम्हें आधी रात को भी किसी चीज की जरूरत हो तो निःसंकोच बताना आखिर हम सब ही तो तुम्हारे हैं"।
पति की प्राइवेट नौकरी थी, कंपनी से थोड़े बहुत पैसे मिले जो इलाज के वक्त ही खत्म हो गए थे।अब आय का कोई स्रोत न था तब मैंने एक दिन सास से कहा मम्मी मैं स्कूल में पढ़ाने का काम कर लूँ, आप पति और बच्चों को सँभाल लेंगी ? तब सास के साथ जेठानी ने भी हामी भरी थी और कहा था कि क्यूँ नहीं, हम नहीं तो और कौन सँभालेगा।मैं निश्चिंत होकर स्कूल जाने लगी।स्कूल जाने से पहले मैं अपने पति को नित्य कर्म कराती थी, दोनों बेटियों को तैयार करती थी व खाना बनाकर जाती थी।मेरे बच्चे मुझसे पहले स्कूल से आ जाते थे, शुरू-शुरू में तो सब ठीक था बच्चों को समय खाना मिलता था पति को भी समय पर खाना व दवाई दी जाती थी।धीरे-धीरे सब बदलने लगा अब न बच्चों को समय पर खाना मिलता था न पति को दवाई।कुछ कहूँ तो सास कहती थीं अपने घर चली जाओ वहाँ आराम से रहोगी।प्राइवेट नौकरी होने की वजह से तनख्वाह कम थी वक्त जरूरत मैं सास से पैसे माँग लिया करती थी पर अब वो आना कानी करने लगी थीं।एक बार रात में मेरी छोटी बेटी काव्या की तबियत ज्यादा खराब हो गई।मैंने सास से कहा कुछ पैसे दे दीजिए डॉक्टर को दिखाना है तो उन्होंने कहा मेरे पास नहीं है अपने घर चली जाओ वहीं दिखा लेना।तब पहली बार मैंने कहा ये भी तो मेरा 'घर' है तो सास ने कहा ये तुम्हारा ससुराल है 'घर' नहीं।
मैं तो आसमान से जमीन पर गिर पड़ी जिस 'घर' को मैं दस साल से अपना 'घर' समझ रही थी वो मेरा घर नहीं ससुराल है।बस मैं तुरन्त अपने पति व अपनी बेटियों के साथ अपने 'घर' आ गई।यहाँ सब ने दिल खोलकर स्वागत किया।भाई-भाभीयों ने कहा, कोई बात नहीं दीदी ये तुम्हारा ही घर है तुम यहीं रहो।मम्मी-पापा ने भी उनकी बात का समर्थन किया।यहाँ मेरी नमौजूदगी में मेरे पति व मेरे बच्चों का खूब ख्याल रखा जा रहा था।मैं भी खुश थी।
लेकिन अभी और मुसीबत झेलनी बाकी थी।एक दिन मैं स्कूल से लौट रही थी कि बगल वाली शर्मा आंटी ने पूछा,"जया कब तक मायके में रहने का विचार है, अपने घर कब जाओगी”? यह दूसरा वज्रपात था कि यह मेरा घर शादी से पहले था अब मायका है।
उसी समय मैंने निर्णय ले लिया कि अब यहाँ नहीं रहूँगी,इससे पहले कि कोई और अपमान करे मैं चली जाऊँगी। मैंने अपने निर्णय से अपने भाइयों को अवगत कराया कि मैं किराए पर कमरा लेकर रहूँगी।भाभी व भाइयों ने बहुत समझाया कि अकेले नहीं रह पायोगी लेकिन मैं अपने फैसले पर अडिग रही।
मैंने एक कमरे का मकान किराए पर ले लिया और बच्चो व पति के साथ वहीं रहने लगी।इस कष्ट की घड़ी में मेरे ‘स्त्री धन' ने मेरा साथ दिया।कुछ महीनों बाद मैं सरकारी स्कूल में पढ़ाने लगी और घर पर बच्चों कोट्यूशन भी देने लगी।मेरी दोनों बेटियाँ पढ़ने में बहुत तेज थीं उन्हें छात्रवृत्ति मिलती थी,अब तो आद्या भी ट्यूशन देने लगी थी।स्थिति पहले से बहुत बेहतर हो गई थी।अब तो मैंने दो कमरों का छोटा सा 'घर'ले लिया था।यह मेरा 'घर' था।यह न ससुराल था न मायका और यहाँ से मुझे कोई नहीं निकाल सकता था।
मैंने अपनी दोनों बेटियों को सिखाया था कि जब तुम लोग अपने पैर पर खड़े होना तब अपना 'घर' जरूर बनाना,जहाँ से तुम्हें कोई न निकाल सके।
आज आद्या लखनऊ की जानी मानी हार्ट स्पेशलिस्ट हैऔर काव्या मेडिकल की पढ़ाई कर रही है।आद्या के ही घर का गृहप्रवेश है। तभी आद्या ने तेज से झकझोरा,सो गई क्या मम्मी?नीचे सब बुला रहे है।मैं जैसे नींद से जागी,आद्या ने कहा थक गई हो तो रहने दो। मैंने कहा तन थका है मन नहीं,चलो नीचे चलते हैं।
नीचे पहुँची तो तालियों की गड़गड़ाहट से मेरा स्वागत हुआ।आद्या ने सबसे मेरा परिचय कराया।सबने कहा मैम आज इस मौके पर कुछ तो कहिए।मैं भी बोलने को आतुर थी,मैंने कहा-"कहने को तो हम महिलाओं के दो घर होते हैं-एक ससुराल दूसरा मायका।लेकिन वो घर नहीं होता ससुराल वाले मायके को हमारा घर कहते हैं और मायके वाले ससुराल को।हम महिलाओं का अपना घर होना चाहिए जिसे न मायका बोले न ससुराल और जहाँ से हमें कोई न निकाल सके।"बस मुझे इतना ही कहना है।
तभी काव्या आई और बोली मम्मी चलो खाना खा लो।मैं खाना खाने जा रही थी कि तो महिलाएँ आपस में बात कर रहीं थी कि,'मालूम है राधा अपने पति की मृत्यु के बाद से अपने बेटे के साथ मायके में ही रहती है और बीच-बीच में ससुराल आती जाती रहती है'।फिर वही ससुराल और मायका।'घर कहाँ है?'
बहुत ही शानदार ������
ReplyDeleteबहुत सुंदर और प्रेरणादायक ।
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