Posts

Showing posts from October, 2021

चाहत

    आज मैं चौदह वर्ष की हो गई मध्य रात्रि उत्सव का माहौल चल रहा था तभी माँ को तेज पेट दर्द शुरु हो गया। पिताजी ने तुरंत कार निकाली और माँ को लेकर अस्पताल भागे।अब मैं कोई छोटी बच्ची तो थी नहीं कि यह ना जानूँ कि यह सामान्य पीड़ा नहीं है बल्कि प्रसव पीड़ा है।समझ नहीं आ रहा था रोती हुई पाँच साल की छोटी बहन को सँभालूँ या दिल में उठ रही टीस को।     मन में माँ-पिता जी के लिए नफ़रत उसी दिन पैदा हो गई थी जिस दिन माँ ने मुझसे चहकते हुए कहा था,”तनु तुम्हारा भाई आने वाला है।” मैंने तुरंत गुस्से में तेज आवाज़ में कहा हम दो बहनें तो हैं  फिर भाई की क्या ज़रूरत ?और तुम पार्लर के चक्कर में हम दोनों को समय तो दे नहीं पाती और अब एक भाई? इतना बोलते ही एक झन्नाटेदार थप्पड़ दिया था पिताजी ने। बोले, “भाई आने की ख़ुशी नहीं है कैसी लड़की है।”चाचू ने आकर बचा लिया था वरना और पिटाई होती। पिताजी का यह रूप पहली बार देखा था मैं और छोटी बहन दोनों सहम गए थे।     पिताजी जो फ़ेसबुक पर बेटियों के समर्थन में इतना कुछ लिखते थे सब झूठ था।इतनी बड़ी बड़ी बातें सब बकवास। उस दिन उनके चेहरे का ...

अनोखा रिश्ता

     2001 से मेरा डॉक्टरों से मिलना जुलना जो शुरू हुआ वो आजतक निरंतर बना हुआ है।यह लेख मैं डॉक्टर्स डे पर लिखना चाहती थी लेकिन किसी कारणवश ना लिख पाई। उस समय मैं अपने जीवन में आए समस्त डॉक्टरों के बारे में लिखती अभी तो केवल जिन डॉक्टर के संपर्क में सबसे ज़्यादा रही उन्हीं के बारे में लिखूँगी।       मैं अब तक जिनके संपर्क में  सबसे ज्यादा रही उनका नाम है डॉ अमित मोहन। एक पेशेंट अपने डॉ के संपर्क में कब आया यह उसे याद रहता है लेकिन डॉ के संपर्क में पेशेंट आया यह अगर डॉ को याद रहता है तो पक्का पेशेंट खास (विचित्र)है ।     कल जब डॉ अमित से मिलने गई (पहली बार दिखाने नहीं) तो मुझे देखते ही बोले, ”मुझे मालूम था कि आपको कुछ नहीं होगा”। असल में कोरोना वैक्सीन की दूसरी डोज़ के बाद मेरी तबियत ज्यादा बिगड़ रही थी, साँस लेने में इतनी दिक़्क़त थी कि लगता था मृत्यु हो जाती तो ठीक रहता। उस समय जब मैंने इन्हें अपनी तकलीफ़ बताई तभी इन्होंने कहा कि “आपको कुछ होने से पहले मुझे मालूम हो जाएगा। हाँ दिक़्क़त ज़्यादा लगे तो एडमिट हो जाइएगा वैसे आपको होगा कुछ नहीं”। ...

घर

    कहा जाता है एक मकान को “घर” औरत ही बनाती है।बिना औरत “घर” भूतों का डेरा लगता है।दो शब्दों से बने “घर” ने  आज फिर मन में उथल-पुथल मचा दी है।हम महिलाओं का घर है कहाँ?उम्र के इस पड़ाव में यह प्रश्न बहुत कचोटता है कि हम महिलाओं का “घर” कहाँ है? लड़की के जन्म लेते ही मान लिया जाता है कि वो परायी है फिर जैसे ही वह होश सम्भालती है उसको भी यह एहसास कराया जाता है कि उसे दूसरे घर जाना है और वही दूसरा “घर” ही उसका अपना घर होगा।विवाहोपरांत जहाँ जन्म लिया ,25-26 साल तक जिसे अपना घर समझा वह मायका हो जाता है और जहाँ विदा होकर गई वह ससुराल।      मायके में कुछ शौक पूरे करना चाहा तो यह सुनने को मिलता था अपने “घर”जाकर पूरा करना,अपने “घर”आयी तो उस शौक को पूरा करने के लिए यह सुनना पड़ता है कि अपने “घर”से करके आती।बार-बार असमंजस की स्थिति कि कौन से घर को अपना कहें।क्योंकि (हम महिलाएँ)जब ससुराल से मायके जाती हैं तब कहती हैं अपने “घर” जा रहे और जब मायके से ससुराल तब भी कहती हैं अपने “घर” जा रहे।हम महिलाएं दोनों घरों को अपना मान रहे लेकिन वो दोनों घर हम लोगों को अपना नहीं मानते...