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असहाय वृक्ष

 छाई निराशा , वृक्षों में,  निसहाय देख रहे, कटते साथी को, व्यथित हो, मानो बोल रहे, संगी - साथी बिछड़े मेरे,  लुप्त सावन - भादों की अठखेली,  मूल हुआ दुर्बल मेरा,  काया भी, अब रुग्ण हुई,  होगा अब परिवर्तन,   परिवर्तन का, दोष ना देना  दोषी हो तुम सब ही, दे, नाम विकास का, निर्दयी , निष्ठुर बन  तुमने हमको काटा ।।

बात ही बात

         यूपी बोर्ड के हाई स्कूल में हिंदी का पहला अध्याय प्रताप नारायण मिश्र का निबंध "बात " है । गाहे-बगाहे यह निबंध याद आ ही जाता है । क्योंकि बिना 'बात' कुछ हो ही नहीं सकता और लोग 'बातें' भी कितनी करते हैं । पहले सीमित संसाधन थे अब तो संसाधनों की भी कमी नहीं । फेसबुक , इंस्टाग्राम , ट्विटर, व्हाट्सएप, यूट्यूब, ब्लॉग सब पर 'बातें' ही तो होती हैं । अभी जो मैं लिख रही तो मैं भी अपने मन में आई 'बात' ही लिख रही हूॅं ।         इंसान जब दो साल का होता है तभी बोलना सीख जाता है । लेकिन कब , कहाॅं , क्या बोलना चाहिए यह जीवन भर नहीं सीख पाता । किस 'बात' का दूसरे इंसान पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह भी नहीं सोचते । इनमें से कुछ ऐसे भी हैं जिनको बाद में एहसास होता है कि उन्होंने गलत बोल दिया है वो क्षमा भी मांग लेते हैं और कुछ 'क्षमा' शब्द से ही अनभिज्ञ होते हैं, वो ये मानने को तैयार ही नहीं होते कि वो दिल दुखाने वाली 'बात' बोल भी सकते हैं ।               अब वो 'बात' जो हम लोग बच्चों को चिढ़ाने के लिए बिना सोचे-समझे ब...

अंधविश्वास मर्ज का इलाज

     आज सुनीता बहुत खुश थी । हो भी क्यों ना , आखिर आज वो होने जा रहा था जो वो महीनों से चाह रही थी । ऐसे तो काम में वो फुर्तीली थी , घर का काम सबके साथ मिलकर निपटा कर ही ऑफिस जाती थी । लेकिन आज उसके काम करने में अलग ही फुर्ती थी । रसोई का काम करते-करते वह कुछ गुनगुना भी रही थी । सुनीता की सास सुनीता को खुश देख मंद मंद मुस्कुरा रही थीं और उसकी समझदारी पर गर्व भी कर रहीं थीं ।       एक वर्ष पूर्व ही सुनीता का ब्याह सुनील से हुआ था । नये परिवार में वह अच्छे से रच - बस गयी थी । सास - ससुर , छोटी ननद सब बहुत अच्छे थे । किसी बात की कमी नहीं थी और सुनील, वो तो बहुत ही समझदार था, सुनीता का साथ देने को सदा तत्पर रहता था ।       सब कुछ ठीक था किन्तु सुनील के माता-पिता अंधविश्वासी थे । जब भी कोई अस्वस्थ होता तो डॉक्टर के पास ना जाकर ओझा और पंडित के पास जाते थे और पूजा-पाठ में व्यर्थ का पैसा खर्च करते थे यह सब सुनीता को बहुत खटकता था । एक दो बार उसने अपनी सास को समझाना‌ चाहा तो वो उससे नाराज हो गईं । ऐसे तो सुनील हर बात में उसका साथ देता था किन्तु इस माम...

कर्मकांड

    जन्म हुआ है तो मृत्यु निश्चित है । यह कहना गलत ना होगा कि गर्भ में ही मृत्यु का दिन निश्चित हो जाता है । मृत्यु पर लिखना अच्छा तो नहीं लग रहा लेकिन क्या करुॅं , दिलो-दिमाग में बहुत दिनों से उथल-पुथल चल रही ।        किसी अपने के जाने के उपरांत सब यह बोल कर सांत्वना देते हैं कि ," सब ऊपर वाले के हाथ में है ।" सच भी है कि सब ऊपर वाले के हाथ में है और हम केवल अपना कर्म कर सकते हैं । किसी की असमय मृत्यु निश्चित ही अत्यंत कष्टकारी होती है ।उनका जाना भी कष्टकारी होता है जो‌ आयु पूर्ण कर जाते हैं और वो अगर माता-पिता हों‌ तब कष्ट थोड़ा ज्यादा होता है । किंतु पापा के जाने के बाद यह लगा कि मृत्यु के बाद के कर्मकांड उससे ज्यादा कष्टकारी होते हैं । क्योंकि इससे पहले मैंने ये सब देखा नहीं था । (जो मैंने देखा और सुना है उसी के आधार पर लिख रही। वैसे मैं बहुत ज्यादा जानती नहीं । )      लोग कहते हैं कि तेरहवीं वगैरह करने का प्रावधान इसलिए किया गया कि लोग व्यस्तता में अपना दुःख भूल जाएं और मृतक की आत्मा को शांति मिले । सोचिए इसी में किसी की असमय मृत्यु हो त...

जब - जब माॅं को याद किया

 जब - जब माॅं को याद किया माॅं दौड़ी - दौड़ी आती हैं  दुःख आए या सुख आए  माॅं दौड़ी - दौड़ी आती हैं  हाथों में अपने त्रिशूल लिए माॅं, सिंह की सवारी किए  ऑंखों में अपने तेज लिए माॅं, ममतामई मुस्कान लिए  भक्तों पर अपनी कृपा करने , वो दौड़ी - दौड़ी आती हैं  जब - जब माॅं को याद किया माॅं दौड़ी - दौड़ी आती हैं  दुःख आए या सुख आए  माॅं दौड़ी - दौड़ी आती हैं  हाथों में अपने शंख लिए माॅं , गुड़हल माला पहने हुए  चक्षु में अपने शांति लिए माॅं, करुणा का भाव मन में लिए  भक्तों को आशीष देने, वो दौड़ी - दौड़ी आती हैं  जब - जब माॅं को याद किया  माॅं दौड़ी - दौड़ी आती हैं  दुःख आए या सुख आए  माॅं दौड़ी - दौड़ी आती हैं।।

बिटिया रानी

 घर में आई बिटिया रानी मेरी प्यारी सी गुड़िया रानी आँखें भींचे मुट्ठी बाँधे आई है पापा की प्यारी उसकी किलकारी से घर है चहकता नन्हे पैरों में पहन वो पायल  जब रुनझुन - रुनझुन चलती तब मेरा मन विह्वल होता दादा जी का ऐनक छिपाती  दादी को छड़ी पकड़ाती  और मुझे शीतल जल दे ताली बजा वह खुश हो जाती। कभी खेलती गुड्डे - गुड़ियों से कभी उठा बैट खिलाड़ी बन जाती कभी विद्यार्थी मुझे बना शिक्षक बन मुझे पढ़ाती और कभी चुनरी को ओढ़ दुल्हन भी बन जाती  दुल्हन बन जब मुझे रिझाती तब वह मुझको कम ही भाती तत्क्षण उसकी सखी मैं बन जाती और उसको यह समझाती प्यारी बिटिया एक बात जान लो अपने जीवन के मूल्य पहचान लो शिक्षा, स्वावलंबन, उठाकर सिर को जीना है यही स्त्री का सच्चा गहना इसको है तुम धारण करना इस आभूषण से ही है तुमको संवरना आभूषित हो इस गहने से जग में मेरा नाम तुम करना॥

संकल्प शक्ति

    क्या कोई स्त्री विवाहोपरांत 30+ या‌ 40+ पर अपनी योग्यता के आधार पर अपनी पहचान नहीं बना सकती ? 50+ इसलिए नहीं लिख रही कि तब तक उनके पति सरकारी पद से सेवानिवृत्त हो गए होते हैं या होने वाले होते हैं।         प्रत्येक इंसान को स्वयं की पहचान अवश्य बनानी चाहिए ऐसा मेरा मानना है। आज इस विषय पर इसलिए लिख रही कि मैं जानती हूॅं कि बहुतों को ऐसा लगता है कि मैं अपने पति के सरकारी पद का इस्तेमाल कर "ऑल इंडिया रेडियो" में पहुॅंची हूॅं । हाॅं, बस वो मेरे समक्ष नहीं बोलते।      मैंने सबसे पहले 2015 में पहली कहानी "बालमन" लिखी थी। जिसको पढ़ने के बाद पतिदेव ने कहा "तुम लिखती क्यों नहीं ? लिखा करो।" उस वक्त लगा ऐसे ही कह दिए होंगे । लेकिन यह कहने के पीछे एक बहुत बड़ा कारण यह था कि मैं 2014 की लम्बी अस्वस्थता के कारण अवसाद से ग्रसित थी और अब मैं शारीरिक रूप से गृहकार्य करने में भी समर्थ नहीं थी । 2014 से पहले बच्चों को मैं ही पढ़ाती थी लेकिन अब उसमें भी मेरा मन नहीं लगता था। जबकि बच्चों को पढ़ाना मुझे बहुत पसंद था। इसीलिए पतिदेव को लगा कि मैं उसी में व्यस्...