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आ रहे हैं श्री राम

सज गया अयोध्या धाम  गा रहे सब मंगल गान  नगर में /अवध में आ रहे हैं श्री राम  चौदह वर्ष वन में बिताया रावण वध कर मान बढ़ाया  सिया लखन संग लौटे धाम अवध में आ रहे हैं श्री राम  सज गया अयोध्या धाम  गा रहे मंगल गान  नगर में/अवध में आ रहे हैं श्री राम  सुन खबरिया माॅं हर्षाईं / मुस्काईं आरती थाल सजा कर लाईं देख  भरत - शत्रुघ्न निहाल अवध आ रहे हैं श्री राम सज गया अयोध्या धाम  गा रहे सब मंगल गान  अवध में / नगर में आ रहे हैं श्री राम  कोयल कूके मोर इतराएं वन-उपवन पुष्प बरसाएं  नर - नारी सब करें प्रणाम  अवध में/ नगर में आ रहे हैं श्री राम ।। सज गया अयोध्या धाम  गा रहे सब मंगल गान  अवध में / नगर में आ रहे हैं श्री राम।।

दिव्य कुंभ

 ये दिव्य कुंभ है , भव्य कुंभ है , महाकुंभ है अपना इसमें स्नान - ध्यान का है हर प्राणी का सपना  दानव - दैत्य में हुआ रण लेने को अमृत कलसा उज्जैन , प्रयाग , नासिक ,हरिद्वार में तब अमृत कण बरसा  है संगम रेती , प्रयाग धाम में कल्पवास का सपना  ये दिव्य कुंभ है , भव्य कुंभ है , महाकुंभ है अपना इसमें स्नान - ध्यान का है हर प्राणी का सपना  संतों की भी भव्य कुंभ में होती स्नान की इच्छा  स्नान राजसी के हों साक्षी माॅंगे पुण्य की भिक्षा करें दान सत्संग करें सब देखें मोक्ष का सपना ये दिव्य कुंभ है , भव्य कुंभ है , महाकुंभ है अपना इ समें स्नान - ध्यान का है हर प्राणी का सपना ।।

उठो माॅं श्रृंगार करो

 उठो मात श्रृंगार करो अब तुम्हें धरा पर आना है माथे पे लगा लो तुम बिंदिया   सिंदूर से भर लो तुम मंगिया नैनों में ममता का भाव लिए  अब तुम्हें धरा पर आना है  तुम उठो माॅं श्रृंगार करो  अब तुम्हें धरा पर आना है  हस्त में अपने कमल लिए  और हाथ में अपने शंख लिए  आंचल में भर आशीष लिए  अब तुम्हें धरा पर आना है  तुम उठो माॅं श्रृंगार करो  अब तुम्हें धरा पर आना  है  कर में अपने त्रिशूल लिए  और सिंह की सवारी किए दुष्टों का वध करने के लिए  अब तुम्हें धरा पर आना है  तुम उठो माॅं श्रृंगार करो  अब तुम्हें धरा पर आना है ।।

सोचा ना था

सदा तुमने अपने मन की की, ना सुनते थे बात किसी की। फिर क्यों मानने लगे थे मेरी, जब फोन पर बताते थे तकलीफ़ अपनी। मैं समझाती— डॉक्टर का कहा कर लो थोड़ा-थोड़ा, तुम कहते— कहती हो बिटिया, तो कर लूँगा। मेरी बात का मान भी रखते थे, यह माँ मुझे बताती थीं— तुम इतनी मानोगे मेरी, सोचा न था। वीडियो कॉल पर कहा था तुमने— "तकलीफ़ बहुत है, बिटिया"। तब मैंने कहा था— "ठीक है पापा, अब तुम सो जाओ।" और तुमने यह भी मान लिया... ले ली चिर-निद्रा। सोचा न था— कहा मेरा तुम यूँ मानोगे।

असहाय वृक्ष

 छाई निराशा , वृक्षों में,  निसहाय देख रहे, कटते साथी को, व्यथित हो, मानो बोल रहे, संगी - साथी बिछड़े मेरे,  लुप्त सावन - भादों की अठखेली,  मूल हुआ दुर्बल मेरा,  काया भी, अब रुग्ण हुई,  होगा अब परिवर्तन,   परिवर्तन का, दोष ना देना  दोषी हो तुम सब ही, दे, नाम विकास का, निर्दयी , निष्ठुर बन  तुमने हमको काटा ।।

बात ही बात

         यूपी बोर्ड के हाई स्कूल में हिंदी का पहला अध्याय प्रताप नारायण मिश्र का निबंध "बात " है । गाहे-बगाहे यह निबंध याद आ ही जाता है । क्योंकि बिना 'बात' कुछ हो ही नहीं सकता और लोग 'बातें' भी कितनी करते हैं । पहले सीमित संसाधन थे अब तो संसाधनों की भी कमी नहीं । फेसबुक , इंस्टाग्राम , ट्विटर, व्हाट्सएप, यूट्यूब, ब्लॉग सब पर 'बातें' ही तो होती हैं । अभी जो मैं लिख रही तो मैं भी अपने मन में आई 'बात' ही लिख रही हूॅं ।         इंसान जब दो साल का होता है तभी बोलना सीख जाता है । लेकिन कब , कहाॅं , क्या बोलना चाहिए यह जीवन भर नहीं सीख पाता । किस 'बात' का दूसरे इंसान पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह भी नहीं सोचते । इनमें से कुछ ऐसे भी हैं जिनको बाद में एहसास होता है कि उन्होंने गलत बोल दिया है वो क्षमा भी मांग लेते हैं और कुछ 'क्षमा' शब्द से ही अनभिज्ञ होते हैं, वो ये मानने को तैयार ही नहीं होते कि वो दिल दुखाने वाली 'बात' बोल भी सकते हैं ।               अब वो 'बात' जो हम लोग बच्चों को चिढ़ाने के लिए बिना सोचे-समझे ब...

अंधविश्वास मर्ज का इलाज

     आज सुनीता बहुत खुश थी । हो भी क्यों ना , आखिर आज वो होने जा रहा था जो वो महीनों से चाह रही थी । ऐसे तो काम में वो फुर्तीली थी , घर का काम सबके साथ मिलकर निपटा कर ही ऑफिस जाती थी । लेकिन आज उसके काम करने में अलग ही फुर्ती थी । रसोई का काम करते-करते वह कुछ गुनगुना भी रही थी । सुनीता की सास सुनीता को खुश देख मंद मंद मुस्कुरा रही थीं और उसकी समझदारी पर गर्व भी कर रहीं थीं ।       एक वर्ष पूर्व ही सुनीता का ब्याह सुनील से हुआ था । नये परिवार में वह अच्छे से रच - बस गयी थी । सास - ससुर , छोटी ननद सब बहुत अच्छे थे । किसी बात की कमी नहीं थी और सुनील, वो तो बहुत ही समझदार था, सुनीता का साथ देने को सदा तत्पर रहता था ।       सब कुछ ठीक था किन्तु सुनील के माता-पिता अंधविश्वासी थे । जब भी कोई अस्वस्थ होता तो डॉक्टर के पास ना जाकर ओझा और पंडित के पास जाते थे और पूजा-पाठ में व्यर्थ का पैसा खर्च करते थे यह सब सुनीता को बहुत खटकता था । एक दो बार उसने अपनी सास को समझाना‌ चाहा तो वो उससे नाराज हो गईं । ऐसे तो सुनील हर बात में उसका साथ देता था किन्तु इस माम...