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उठो माॅं श्रृंगार करो

 उठो मात श्रृंगार करो अब तुम्हें धरा पर आना है माथे पे लगा लो तुम बिंदिया   सिंदूर से भर लो तुम मंगिया नैनों में ममता का भाव लिए  अब तुम्हें धरा पर आना है  तुम उठो माॅं श्रृंगार करो  अब तुम्हें धरा पर आना है  हस्त में अपने कमल लिए  और हाथ में अपने शंख लिए  आंचल में भर आशीष लिए  अब तुम्हें धरा पर आना है  तुम उठो माॅं श्रृंगार करो  अब तुम्हें धरा पर आना  है  कर में अपने त्रिशूल लिए  और सिंह की सवारी किए दुष्टों का वध करने के लिए  अब तुम्हें धरा पर आना है  तुम उठो माॅं श्रृंगार करो  अब तुम्हें धरा पर आना है ।।

सोचा ना था

सदा तुमने अपने मन की की, ना सुनते थे बात किसी की। फिर क्यों मानने लगे थे मेरी, जब फोन पर बताते थे तकलीफ़ अपनी। मैं समझाती— डॉक्टर का कहा कर लो थोड़ा-थोड़ा, तुम कहते— कहती हो बिटिया, तो कर लूँगा। मेरी बात का मान भी रखते थे, यह माँ मुझे बताती थीं— तुम इतनी मानोगे मेरी, सोचा न था। वीडियो कॉल पर कहा था तुमने— "तकलीफ़ बहुत है, बिटिया"। तब मैंने कहा था— "ठीक है पापा, अब तुम सो जाओ।" और तुमने यह भी मान लिया... ले ली चिर-निद्रा। सोचा न था— कहा मेरा तुम यूँ मानोगे।